अमन सिंह।
सिंगरौली आज जिस आग में जल रहा है, वह सिर्फ कोयले की नहीं, बल्कि जनता के आक्रोश की आग है। अडानी की कोयला परियोजना के लिए 1.40 लाख पेड़ों की प्रस्तावित कटाई, और कांग्रेस के अनुसार 4 लाख से अधिक पेड़ों के सफाए की तैयारी, जिले में गंभीर आक्रोश का कारण बनी है। स्थानीय लोगों को लग रहा है कि सरकार और प्रशासन सिंगरौली को एक उद्योगिक उपनिवेश की तरह देख रहे हैं, न कि मनुष्यों का जीवंत जिला।
जिलेवासियों की सबसे बड़ी निराशा कलेक्टर के उस बयान से है, जिसमें कहा गया कि कटे हुए पेड़ों की भरपाई 500 किलोमीटर दूर किसी अन्य जिले में कर दी जाएगी। लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या सिंगरौली की जहरीली हवा रीवा या उज्जैन जाकर साफ हो जाएगी? क्या राखीली हवाएँ 500 किमी दूर जाकर हल्की पड़ जाएँगी? यह सोच लोगों को यह महसूस करा रही है कि प्रशासन ने उन्हें सिर्फ “प्रोजेक्ट अफेक्टेड पॉपुलेशन” बना कर छोड़ दिया है, जिनकी भावनाओं और भविष्य की कोई कीमत नहीं।
सिंगरौली पहले से ही प्रदूषण के भयावह स्तर से जूझ रहा है। कोयला आधारित उद्योग रोज़ काली धूल उड़ाते हैं, हर घंटे घरों के अंदर राख की परतें जमती हैं, और हर दिन सामान्य सांस लेना भी मुश्किल होता जा रहा है। NCAP, CPCB और NGT की रिपोर्टें भी यह चेतावनी दे चुकी हैं कि सिंगरौली भारत का “गैस चैंबर” बन चुका है। ऐसे समय में पेड़ों का बड़े पैमाने पर कटना जनता को पर्यावरणीय नरसंहार जैसा लग रहा है। प्रशासन का यह कहना कि “पेड़ काटेंगे… पर 500 किमी दूर लगा देंगे” लोगों को एक क्रूर मजाक जैसा प्रतीत हो रहा है।
इसी बीच, कांग्रेस नेताओं की टीम—जिसमें जीतू पटवारी, उमंग सिंगार, अजय सिंह, कमलेश्वर पटेल और आदिवासी प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय अध्यक्ष विक्रांत भूरिया शामिल थे—ने मौके पर पहुँचकर स्थिति की जांच की। उनका दावा है कि सरकार सच्चाई छिपा रही है और वास्तव में करीब 4 लाख पेड़ों की कटाई हो रही है। निरीक्षण के दौरान प्रशासन इतना असहज दिखा कि 12 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल में से केवल 5 लोगों को ही आगे जाने दिया गया। विक्रांत भूरिया अब भी मौके पर डटे हुए हैं। जीतू पटवारी का स्पष्ट आरोप है कि सिंगरौली को धीरे-धीरे नहीं, बल्कि तेज़ी से मौत की ओर धकेला जा रहा है।
जनता का दर्द भी समझ में आता है। सिंगरौली से कोयला, बिजली और उद्योगों का भारी मुनाफा तो बाहर चला जाता है, पर यहां बचता है केवल राख, बीमारी, प्रदूषण और उजड़े हुए जंगल। अब जब लाखों पेड़—जो प्रदूषण के बीच लोगों की आखिरी ढाल थे—काटे जा रहे हैं, तो लोगों का आक्रोश स्वाभाविक है। कई स्थानीय लोग तंज करते हुए कहते हैं कि “अगर पेड़ों की भरपाई कहीं और करनी है, तो सिंगरौली को भी कहीं और बसाकर नया जिला बना दीजिए।” यह मज़ाक नहीं, बल्कि एक टूट चुके जिले की वास्तविकता है।
इन सबके बीच सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि आखिर विकास किसके लिए हो रहा है? अगर विकास का अर्थ जंगल उजाड़ना, आदिवासियों की जमीन छीनना, बच्चों को जहरीली हवा देना और लोगों की सांसें छीन लेना है, तो यह विकास नहीं, बल्कि विनाश का मॉडल है। जनता का आक्रोश इस बात का संकेत है कि अब विश्वास टूट चुका है।
अब सवाल लोगों के सामने है—क्या लाखों पेड़ों की यह कटाई रोकी जानी चाहिए? क्या कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होना चाहिए कि पेड़ों की भरपाई सिंगरौली में ही हो? क्या प्रशासन को जनता के स्वास्थ्य को औद्योगिक योजनाओं से ऊपर नहीं रखना चाहिए? क्या सिंगरौली को फिर से एक पर्यावरणीय नरसंहार का मैदान बनाया जा रहा है?
लोगों का मानना है कि अब उनकी आवाज़ ही सिंगरौली को बचा सकती है, क्योंकि सरकार और प्रशासन तो दूर खड़े होकर तमाशा देखते प्रतीत हो रहे हैं।







